Friday, August 11, 2017

ऐसे थे..महान हस्ती व पूर्व सांसद बाबू राम सिंह जी

उनके कंधे पर ज्यादा देर न शाल टिकी और न बदन की जैकेट। इधर उनके दोस्त उन्हें कुछ उपहार देकर अपना स्नेह. सम्मान जताते और उधर उनके सामने खड़े किसी जरूरतमंद की जरूरत पूरी हो जाती। एक क्षण उनकी जेब नोटों से भरी होती तो फिर अगले ही क्षण वह बंट जाते।

पूर्व सांसद राम सिंह के यहाँ अगर कुछ टिकाऊ था तो वह थे रिश्ते, जिन्होंने उन्हें हमेशा प्रासंगिक रखा और जीवंत बनाये रखा। वह सच और पीड़ित के हक़ में खड़े होने और अड़ने वाले इंसान थे। दिमाग से ज्यादा दिल से सोचने और दिल की करने वाले। ऐसे लोग नफ़े. नुकसान की परवाह कहाँ करते हैं,     

स्व.सिंह का राजनीतिक सफर युवक कांग्रेस से शुरू हुआ। इमरजेंसी में संजय गांधी अमेठी में सक्रिय थे। महीने भर श्रमदान और प्रशिक्षण के कार्यक्रम चले थे। राम सिंह वहीँ से उभरे।

संजय गांधी 1977 में अमेठी से लोकसभा चुनाव हार गए थे। केंद्र. प्रदेश की सत्ता से भी कांग्रेस बेदखल हो गई थी। कांग्रेस के ये बुरे दिन थे। बहुतों ने साथ छोड़ दिया था। जो रुके और लड़े।  सड़क से अदालतों तक। उनमे राम सिंह और उनकी युवा टीम आगे. आगे थी। संजय गांधी ने उनकी कूवत को परखा था।

1980 में सुल्तानपुर की लम्भुआ सीट से उन्हें विधायक भी बनाया। संजय गांधी के जरिये आगे बढ़ने वाले और भी विधायक. सांसद हैं। अनेक अब स्थापित नाम हैं। पद.ओहदा नहीं भी बचा है तो इतनी धन.दौलत जुटा ली है कि कम से कम परिवार को कोई शिकायत नही होगी।

राम सिंह विधायक भी रहे और फिर 1989 में जनता दल के सांसद । जनता दल के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। कांग्रेस नेतृत्व के नजदीकी और फिर सांसद रहने के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह के बेहद ख़ास। फिर भी फक्कड़ ही बने रहे। कभी अपने और घर परिवार के लिए कुछ जुटाना,बनाना उनके स्वभाव में नहीं था।

अरसे से भीड़ और सत्ता के आभा मंडल से दूर थे लेकिन कोई गिला. शिकवा और रुदन नहीं। मौका चूकने का पछतावा उसे हो जो उसकी ताक में रहा हो। फ़िलहाल  तो करोड़ की रकम किसी गिनती में नहीं लेकिन लगभग तीन दशक पहले उसका बहुत वजन था।

वी पी सिंह की सरकार के पतन के बाद,स्व.चंद्र शेखर के पाले में खींचने के लिए एक करोड़ की रकम दिल्ली के उनके सांसद आवास के दरवाजे से ठुकराई गई थी। केंद्र में राज्य मंत्री का पद का लालच भी उन्हें अपनी ओर खींच नहीं पाया।

उन्हें चाहने. मानने वालों की जमात बड़ी लंबी थी। और यह नेता बनने के बाद नहीं उससे भी पहले से। पता नहीं क्या था उनके पास। छोटा. बड़ा जो संपर्क में आया मुरीद बन गया। सत्ता से अपनी नजदीकियों और तमाम का भला करके धेले की भी चाहत न रखने वाले राम सिंह का अपने दोस्तों की जेब पर हक था।

पर हंसी. ठिठोली के बीच दोस्तों की छोटी.मोटी छीनी. झपटी जाने वाली यह रकम आम तौर पर उम्मीद लगाकर घेरे रहने वाले जरूरतमंदों के काम आई। दोस्तों की उनकी दुनिया उनके अपने सुल्तानपुर शहर से देश के तमाम हिस्सों में फैली हुई है । पद पर रहे या फिर पैदल लेकिन उन्हें चाहने वाले उन्हें याद करते रहे।

इधर कुछ महीनो से वह जानलेवा कैंसर से जूझ रहे थे। गुरूवार को शाम लखनऊ में डॉक्टरों द्वारा जबाब देने के बाद घर वापस लाये गए,देर शाम आखिरी सांस ली।  यह लड़ाई सब हारते हैं। वह भी हारे।

अगले दिन आखिरी विदाई तक हुजूम उमड़ता रहा। सब दल के लोग थे। सब तबके के लोग थे। उदासी के बीच भीगी आँखें। साथ पढ़ने वाले भी और संघर्ष करने वाले भी। उनके सबसे पुराने साथी धीर. गंभीर अशोक पांडे विलख पड़े। कहाँ होते है अब ऐसे ईमानदार नेता!

पूर्व आई पी एस और प्रसिद्ध साहित्यकार विभूति नारायण राय अपने पुराने मित्र की याद करते हुए स्मृतियों में खोये। स्वण् राम सिंह द्वारा बड़े. बड़े प्रलोभन ठुकराने के कुछ मौकों के वह खुद साक्षी है। लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र नाथ भट्ट से स्वण् राम सिंह के तब के रिश्ते थे जब वह सत्ता दल के सांसद थे।

भट्ट जी कहते हैं उनके लंबे पत्रकारिता कैरियर में इतने सरल.सुलभ नेता विरले ही मिले। दिल्ली से वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह उनसे अपने चालीस साल पुराने रिश्तों की याद करते हुए श्रद्धांजलि स्वरूप लिखे एक आलेख को सुनने का इसरार करते हैं और फिर आधा पढ़ते.पढ़ते रोते हुए फोन काट देते हैं। अब इन पंक्तियों के लेखक की विवशता देखिये।

कभी उस बड़े भाई ने छात्र संघ के अपने चुनाव की क्वालीफाइंग स्पीच लिखने का आसान काम सौंपा और अब जाते हुए बिना कहे सबसे भारी  यादों को पिरोने का काम सौंप दिया। मौत से सब हारते हैं। जिन्होंने स्व.राम सिंह को जाना और जो जान सकेंगे उन्हें यह जानकर 

तसल्ली होगी कि चाहतें उन्हें हरा नहीं पाईं। 

                  राज खन्ना

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